तीन लफ़्ज़ में तलाक़,तीन लफ़्ज़ में निक़ाह

 तीन  लफ़्ज़  में  तलाक़,तीन  लफ़्ज़  में निक़ाह।                                                                                                                                       एक   में   क़ाज़ी   गवाह ,एक  में ख़ुदा  गवाह।।

हवस को अपनी मर्द ने,पहना के जामा  मज़हबी।
ओढ़ा  बिछाया  रात दिन,बस औरतें करीं तबाह।। 

लूटा  खसोटा  ऐश  की,और  जब मन भर गया ।
एक सेज नई तलाश ली, कर लिया नया निक़ाह।।

मेहर के नाम फेंक दीं, कुछ  क़ीमतें ऐय्याशी की।
फिर पाक़ साफ़ हो गये, लो धुल गये सारे गुनाह।।

इल्ज़ाम रख दिया कोई, कभी दोष मढ़ दिया कोई। 
और दे दिया तलाक़ कह ,होता नहीं हमसे निबाह।। 

रस्मो रिवाज़ के नाम पर,या रसूल के पयाम पर।
हलाला होतीं  औरतें,  रोतीं  किस्मत  पर  कराह।।

क़ानून  बन गया है अब मनमर्ज़ियाँ रुक जायेंगी।
यूँ रोते  मुल्ला मौलवी, छाती पीट चिल्ला -चिल्ला।।

सबके लिए एक हो नज़र, हिन्दू या मुसलमान हो। 
भारत की हैं सब बेटियाँ, एक सी सब पर  निगाह।।

पर्दे  के पीछे अब कोई बेपर्दा न मज़बूर हो पायेगी।
न रौशनी बुझ पायेगी,कोई भी "दीपक "  बेवज़ह।।

@ दीपक शर्मा

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