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Showing posts from September, 2018

अब सियासतदानो को नही सियासत करनी चाहिए--@ DEEPAK SHARMA

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अब   सियासत दानो   को   नही    सियासत   क रनी   चाहिए बस जिस्मख़ोरी सज़ा तो फ़क़त फाँसी होनी चाहिये।   इंसान जब बनके दरिंदा हदें  हैवानियत  की तोड़ दे   गर्दने पागल वहशियों की चोराहों पे  कटनी  चाहिये।  हादसे कुछ दिन की ख़बरें बनकर रह जाते सुर्खियां      अहले-वतन  अंजाम तक  पूरी मुहीम  होनी चाहिये।           ज़िन्दगी और मौत के बीच लाके हवस ने छोड़ दिया कोई रौशनी बुझने से पहले  कालिख़  मिटनी चहिये।         हाथों में शमा जलाने से  इन्साफ कभी मिलता  नही   हवशियों  की  बोटियाँ  काट काट फेकनी  चाहिये। .  "दीपक"  सख़्त   क़ानून  क्योँ हुकूमत  बनाती   नही नस्ल  को  जिस्मखोरों की सख्त सीख मिलनी  चाहिए । 

जिनके दामन मे दौलत नहीं ग़म होते हैं--@ KAVI DEEPAK SHARMA

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जिन के दामन मे दौलत नहीं ग़म होते हैं उन मुसाफ़िरों के हमसफ़र कम होते हैं . उसूलों की यहाँ जो भी बात करता है   उस के लम्हे -हयात जल्दी खत्म होते हैं . बेवफ़ाओं की राह में फूलों की बारिश  वफ़ादारों पे पत्थरों के करम होते हैं . अब शहर देखकर ही हवाएं चला करती हैं  इंसान की तरह होशियार मौसम होते हैं . उनसे हर वक़्त ख़ुदा भी ख़फ़ा रहता है  लाख़ जिनपे पहले ही से सितम होते हैं  घर में मौत और जश्न का माहौल या रब  जबकि ग़ैरों के दर पर मातम होते हैं . और ज़्यादा की आरज़ू में , खो गई आबरू  ख़ुद पे शर्मसार "दीपक" लोग कम होते हैं

"राखी की ऐवज़ में भैय्या,मुझे नहीं चाहिए गहना। by DEEPAK SHARMA

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 "राखी की गुहार " _________________ "राखी की ऐवज़ में भैय्या,मुझे नहीं चाहिए गहना। बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो, विनती करती बहिना।। गिद्द  नज़र से  बची रहूँ ,बस कुछ ऐसा कर दो। अपने घर में रहूँ  सुरक्षित,मुझे एक ऐसा घर दो। खुली  हवा में मेरे भईया, में भी चाहती हूँ रहना। बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती बहिना।। कोई बस में, कोई रेल में , कोई नित कार  में चलती , रौंद रहा रोज़ अस्मत मेरी,कहो कहाँ मेरी ग़लती। अपने घर में हर लड़की है अपने बाबुल की मैना। बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो विनती करती बहिना।। रक्षा की परिभाषा बदलो,दो इज़्ज़त मर्यादा थोड़ी। मान कहो इसको मेरा  या समझो याचना  मोरी। सदियों से मैं सहती आई और नहीं अब सहना। बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो विनती करती बहिना।। रिश्तों  से बहुत भय लगता है, हर  रिश्ता ओछा है। जन्म दिया जिस पिता ने,उसने भी तन को नोंचा है। और किसी रिश्ते की बाबत और भला क्या कहना । बस थोड़ी सी आज़ादी दे दो,विनती करती बहिना।। कोई कोख़ में मार रहा  तो कोई दहेज के कारण। कोई करे हलाला मेरा तो...

हम अपने मजहब का खुद ही मज़ाक उड़वाते हैं,--@ Deepak Sharma

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हम अपने  मजहब का खुद ही मज़ाक उड़वाते  हैं ,   गर  बात  ये   गैर मजहबी कह  दे तो दंगे हो जाते हैं।  हमारी आदमियत की यही पहचान  है  सदियों से  इबादतगाहें जो आज  मंदिर - मज्जिद कहलाते हैं।   अगर मजहब ही सब है तो क्यूँ अमन नही जग में  क्यूँ  बंदूकें आग उगलती हैं  क्यूँ  बम फट  जाते हैं।   बदल  कर नाम अपना तार्रुफ़ गिनती बना लो तुम नाम सुनके सभी ज़ज्बात कहीं क्यूँ हो फुर्र जाते हैं।   खाक़ पानी और आग़ में सब दुनिआ सिमट जाती  सब एक जैसे  हो जाते  हैं  एक  ही हो सब जाते हैं।  पण्डित ,मौलवी, इमाम ,पादरी  क्या  ग्रंथी-ग्यानी  अरे किसने  देखा  है ये  सारे  सीधे  जन्नत जाते है ।  धोती टोपी चोटी दाढ़ी  फ़क़त  रूप  पहनावा  है...

जिनके दामन मे दौलत नहीं ग़म होते हैं।--@Kavi Deepak Sharma

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जिनके दामन मे दौलत नहीं ग़म होते हैं। उन मुसाफ़िरों के हमसफ़र कम होते हैं ।।   जो उसूलों की बातें करता है ज़माने मे। उसके लम्हे -हयात जल्दी ख़त्म होते हैं।।   बेवफा राहों पे है क्योँ गुलों की बारिश। और बावफ़ाओं पे सदा क्यों ज़ुल्म होते हैं ।।   मिज़ाज देख शहर का हवायें चलती  हैं । शातिर इंसान जैसे आज मौसम होते हैं ।।   उनसे तो हर वक़्त ख़ुदा भी ख़फ़ा रहता है। जिनपे पहले से ही ग़म,दर्दों-सितम होते हैं।।   घर में मौतों पर भी एक जश्न सा होता देखा। जबकि ग़ैरों के यहाँ ग़मी मातम होते हैं ।। और की चाहतों में बिक रहीं अस्मत,आबरू। आज ख़ुद पे शर्मिंदा"दीपक" कम हम होते हैं।। @ Deepak Sharma

किसी का हक़ किसी और को क्यूँ दिलाने पे तुली है.......@ दीपक शर्मा

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किसी का हक़ किसी और को क्यूँ दिलाने पे तुली है। सियासत ही  मुल्क़ में आरजकता फैलाने पे तुली है।। देश का संविधान तो सबको एकसार अधिकार देता है। क्यूँ सरकार देके आरक्षण संविधान मिटाने पे तुली है।। हरफ़ पिछडा,दलित,निम्न पैदाइश राजनीति के हैं। थाम के इनका दामन सत्ता  वतन जलाने पे तुली है।। ज़रा सोचो कुकुरमुत्ते कभी क्या बरगद बन सकते हैं। मगर हुकूमत है ज़बरदस्ती फसल उगाने पे तुली है।। नस्ल सब दानिशमंदों की ख़त्म करने की साज़िश है। इसी साज़िश के तहत सारे सवर्ण मिटाने पे तुली है।। याद इतना रहे जिस दिन भी समुंदर आपा खो देगा। ज़माना रोयेगा कि लहर क्यूँ दुनिया डूबाने पे तुली है।। तिलक,तराज़ू और तलवार,जो अपनी पे उतर आये । सियासत फिर न कहना आग क्यूँ  जलाने पे तुली है।। मैं अपनी नस्ल को घुट घुट के मरते देख नही सकता। मगर ये सरकार खुदकुशी के लिये उकसाने पे तुली है।। जो भी काबिल है उसे उड़ने दो खुले आसमानों में। निज़ामत ज़बरन कबूतरों को बाज़ बनाने पे तुली है।। तुझे गाली ज़रूर देगी ह...